भिखारी ठाकुर का जीवन सादगी, संघर्ष और
समर्पण का प्रतीक रहा। उन्होंने कभी अपनी कला को केवल जीविका का साधन नहीं
बनाया, बल्कि इसे सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में निभाया। उनकी रचनाएँ आज
भी नाट्य मंचों, शोध कार्यों और लोकसंस्कृति के आयोजनों में जीवित हैं।
भोजपुरी साहित्य और लोकनाट्य परंपरा में उनका योगदान अमिट है।
लोक नाटककार भिखारी ठाकुर की जयंती: भोजपुरी लोकसंस्कृति के अमर हस्ताक्षर
पटना: भोजपुरी
लोकसंस्कृति के महान संवाहक, लोक नाटककार और समाज सुधारक भिखारी ठाकुर की
जयंती हर वर्ष श्रद्धा और सम्मान के साथ मनाई जाती है। उन्हें ‘भोजपुरी का
शेक्सपीयर’ कहा जाता है,
क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से
ग्रामीण समाज के यथार्थ, पीड़ा, संघर्ष और आशाओं को सजीव रूप में प्रस्तुत
किया। भिखारी ठाकुर केवल एक कलाकार नहीं थे, बल्कि वे लोकचेतना के संवाहक
और सामाजिक बदलाव के अग्रदूत थे।
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर
1887 को बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर में हुआ था। उनका जीवन अभावों में
बीता, लेकिन उन्होंने अपने अनुभवों को ही अपनी कला की ताकत बनाया।
औपचारिक
शिक्षा भले ही सीमित रही हो, परंतु लोकजीवन की गहरी समझ और संवेदनशील
दृष्टि ने उन्हें महान रचनाकार बना दिया। उन्होंने नाटक, गीत और लोकनाट्य
के माध्यम से उस समाज की आवाज़ उठाई, जो अक्सर मुख्यधारा से उपेक्षित रहता
था।
भिखारी ठाकुर ने ‘बेटी बेचवा’, ‘गबरघिचोर’, ‘कलयुग
प्रेम’, ‘ननद-भौजाई’ जैसे नाटकों के जरिए बाल विवाह, दहेज प्रथा, स्त्री
शोषण और नैतिक पतन जैसे मुद्दों पर प्रहार किया। उनकी खासियत यह थी कि वे
उपदेशात्मक नहीं थे, बल्कि मनोरंजन के साथ सामाजिक संदेश देते थे। लोकगीत,
हास्य, व्यंग्य और करुणा का अद्भुत मिश्रण उनकी रचनाओं को जनमानस के बेहद
करीब ले आया।
उनकी मंडली द्वारा मंचित नाटक गांव-गांव जाकर लोगों को
न केवल मनोरंजन देते थे, बल्कि सोचने के लिए भी मजबूर करते थे। भिखारी
ठाकुर ने लोकभाषा भोजपुरी को मंचीय सम्मान दिलाया और यह साबित किया कि
जनभाषा में भी गंभीर और प्रभावशाली साहित्य सृजित किया जा सकता है।
उन्होंने लोककला को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाकर समाज सुधार की दिशा
में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
