भारतीय
सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन राज कपूर का यह जनशताब्दी वर्ष है। उन्हें देश
का सबसे बड़ा सांस्कृतिक दूत भी कहा जा सकता है। उनकी फिल्मों में दिखाई
एक ख़ास विचारधारा के संदेशों को सोवियत संघ और यूरोप में भी खूब देखा और
सहारा गया। वे केवल एक अच्छे अभिनेता, निर्देशक ही नहीं बल्कि सिनेमा के
हर क्षेत्र जैसे कथा ,पटकथा संवाद, रूप सजा, संगीत, गीत, लाइट, कैमरा आदि
की भी अच्छी समझ रखते थे। इसी कारण उनकी फिल्मों में प्रस्तुत किए गए उनके
सामाजिक चिंतन और संदेशों को भी दर्शक बेहद रुचि से देखते थे। हास्य,
संगीत, रोमांस और नाटकीयता के साथ प्रस्तुत उनकी फिल्मों से कई पीढ़ियां
आज तक मंत्र मुग्ध हैं। वे हिंदी सिनेमा के अब तक के सबसे बड़े इंटरटेनर
थे।
पेशावर (अब पाकिस्तान) में जन्मे राज कपूर बचपन से ही अपने
स्कूल में होने वाले नाटकों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। बाद में
पृथ्वीराज कपूर जैसे लोकप्रिय अभिनेता के बेटे होने के कारण उन्हें बहुत-सी
सुविधा मिल सकती थीं लेकिन उनका पालन- पोषण पृथ्वीराज कपूर ने समान बच्चों
के तौर पर ही किया। वह स्कूल में आम बच्चों की तरह ट्राम में जाया करते
थे। यहां तक कि बरसात में भी उनको कार से स्कूल जाने की इजाजत नहीं थी।
मैट्रिक
की परीक्षा की असफलता के बाद राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के पास
गए और कहा कि और मेहनत करने पर शायद मैं डिग्री प्राप्त कर लूँ उसके बाद एक
नौकरी भी। लेकिन मेरी इच्छा है कि मैं अभी से फिल्मों में कार्य शुरू कर
दूं । पृथ्वीराज जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें 300 रुपए दिए और कहा कि वह
लाहौर, शेखपुरा, समुंदरी और देहरादून स्थित हमारे सभी रिश्तेदारों के यहां
घूम आए। वापस आने पर अगर वह फिर भी फिल्मों में कार्य शुरू करना चाहेगा तो
वे उनकी मदद करेंगे। सभी रिश्तेदारों से मिलकर आने के बाद भी वह अपने फैसले
पर अडिग थे।
पृथ्वीराज ने चंदूलाल शाह से उनके लिए बात की और उनको
रंजीत स्टूडियो में काम मिल गया। पृथ्वीराज ने दो शर्तें रखीं। पहली, उनको
कोई वेतन नहीं मिलेगा और दूसरी शर्त यह थी कि स्टूडियो में उनसे वैसा ही
व्यवहार किया जाएगा, जो एक सामान्य कर्मचारी के साथ किया जाता है, न कि
पृथ्वीराज कपूर के बेटे जैसा। हां, उन्होंने इतना अवश्य किया कि उनका महीने
का जेब खर्च पंद्रह रुपयों से बढ़ाकर तीस रुपए कर दिया। उन्होंने अपनी
पत्नी को राज कपूर की जरूरत के मुताबिक सफेद पतलून और कमीजें सिलने को कहा,
ताकि वे रोज सुबह सफेद कपड़ों में काम पर जाएं और शाम को स्टूडियो की लाल
रंग की धूल में सने कपड़ों में घर लौटे। राज का प्रतिदिन का लंच भी
स्टूडियो में नहीं भेजा जाता था। रंजीत स्टूडियो में राज ने निर्देशक केदार
शर्मा के सहायक के रूप में कार्य किया, जिन्होंने उन्हें बाद में पहला
ब्रेक फिल्म 'नीलकमल' में मुख्य भूमिका के लिए दिया। राज को एक फिल्म
'गौरी' में पहले ही एक छोटे दृश्य में काम मिल चुका था, जिसे केदार शर्मा
ने निर्देशित किया था। पर इससे पहले जब कपूर परिवार कलकत्ता में था तब
जाने-माने फिल्मकार देबकी बोस ने राज का इस्तेमाल अपनी फिल्म 'आफ्टर द
अर्थक्वेक' में एक छोटी भूमिका में किया था।
लगभग एक वर्ष रंजीत
स्टूडियो में बिताने के बाद राज ने एक विज्ञापन के आधार पर बॉम्बे टॉकीज का
रुख किया, जिसमें स्टूडियो को अपने अभिनय और निर्माण विभागों के लिए लोगों
की ज़रूरत थी। यहाँ राज ने एक वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में उत्साह के
साथ कार्य करना शुरू किया, लेकिन कुछ समय तक कार्य करने के बाद भी उन्हें
कोई बड़ा रोल नहीं मिल सका तो निराश होकर उन्होंने पृथ्वी थियेटर में कार्य
शुरू करने की स्वीकृति माँगी। पृथ्वीराज ने स्वीकृति दे दी। राज ने सभी
विभागों में बतौर एक सामान्य सहायक के रूप में कार्य किया। उनका मासिक वेतन
201 रुपए निर्धारित किया, बॉम्बे टॉकीज द्वारा दिए गए 200 रुपयों के वेतन
से एक रुपया अधिक, ताकि वह प्रोत्साहित हों। थियेटर में राज के छोटे भाई
शम्मी को राज से पहले अभिनय का ब्रेक मिला। राज को पहला ब्रेक नाटक 'दीवार'
में मिला। 'दीवार' के प्रथम प्रदर्शन के दिन उनके अभिनय के साथ-साथ उनकी
वर्षों से दबी अनेक प्रतिभाएं बाहर आईं । राज ने सभी को आश्चर्यचकित कर
दिया।
इसके बाद उन्होंने एक बड़ा फैसला लिया स्वयं ही आग फिल्म
बनाने और निर्देशित करने का। हालांकि इस समय उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं
थे लेकिन उन्होंने इसके लिए कड़ी मेहनत की। अपनी कार गिरवी रखी। यहां तक
की अपने पुराने नौकर द्वारका से यूनिट के लिए चाय-पानी और खाने के लिए उधार
लिया। उनके माता-पिता ने भी उन पर तंज कसा था एक पंजाबी कहावत के जरिए
कि थूक से पकौड़े नहीं तले जा सकते। किसी तरह आधी फिल्म बनाने के बाद वह
अपनी फिल्म को कनस्तर में रखकर कई फिल्म वितरकों के पास बेचने के लिए गए
जिससे पैसे मिल जाए। लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। अंत में एक वितरक ने बिना
रशेज देखे उनसे कहा कि मैं पिक्चर को सहारा नहीं देता मैं आदमी को सहारा
देता हूं। उसने चांदी का एक सिक्का उनकी हथेली पर रख दिया। इस तरह से सौदा
पक्का हो गया और फिल्म का काम फिर शुरू हो गया।
1948 में रिलीज़
हुई उनकी यह फिल्म उस समय औसत सफल रही। इसे उन्होंने अपने पिता के साथ हुए
अनुभवों को लेकर बनाया था जिसमें युवा वर्ग की दबी हुई लालसाओं और
आकांक्षाओं को पर्दे पर दिखाया गया था। शशि कपूर ने इस फिल्म में एक बाल
कलाकार के रूप में कार्य किया था। इसी फिल्म से आर के बैनर की शुरुआत हुई
और गायक मुकेश का भी आरके फिल्मस से जुड़ाव इसी फिल्म से शुरू हुआ और अंत
तक बना रहा।
चलते-चलते
पृथ्वीराज कपूर जब परिवार के साथ
कलकत्ता में रह रहे थे तब एक बार रविवार के दिन राज कपूर और शम्मी कपूर को
एक फिल्म देखने की इजाजत मिली। शम्मी कपूर उस समय चार साल के थे। राज जी
ने फिल्म 'गुलिवर ट्रैवल्स' का चुनाव किया। माँ ने उन्हें एक रुपया दिया जो
एक अच्छी-खासी रकम थी- उनकी टिकटों, यात्रा और खाने-पीने के लिए। वहाँ
बहुत भीड़ थी। राज जी ने नौकर द्वारका और शम्मी जी को बाहर रुकने के लिए
कहा। वे दोनों इंतजार करते रहे। अंत में राज जी दो घंटों के बाद आए और कहा
कि कोई भी टिकट नहीं मिला और घर वापस आ गए। जब उनकी माँ को यह पता चला तो
वह सारी बात समझ गईं। दरअसल हुआ यह था कि चार आने वाले सभी टिकट बिक चुके
थे, इसलिए राज जी ने एक बारह आने वाला टिकट खरीदा और अकेले ही फिल्म देख
ली थी।