खूंटी । पहले गरीबों का भोजन के नाम पर प्रसिद्ध कटहल के उत्पादन
में खूंटी जिला महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिले के कटहल की आपूर्ति न सिर्फ
झारखंड, बल्कि ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार और नेपाल तक की जाती है।
अलग-अलग दिनों में लगने वाली साप्ताहिक हाटों में दूसरे स्थानों के
व्यापारी पहुंचते हैं और थोक के भाव में कटहल की खरीदारी करते हैं। कुछ
व्यापारी तो गांव जाकर पेड़ पर लगे सभी कटहलों को खरीद लेते हैं और उन्हें
दूसरे राज्यों की मंडियों में बेचते हैं।
कटहल उत्पादन आज भी यहां
के लोगों की आय का बड़ा जरिया है। जिले के सभी क्षेत्रों में कटहल के पेड़
पाये जाते हैं। लोग तो घरों में कटहल का पेड़ लगाते ही हैं, साथ ही सड़कों के
किनारे जंगलों में भी प्राकृतिक रूप से उगे कटहल के पेड़ यहां के लोगों के
भोजन और आमदनी का एक बेहतर जरिया है। जंगलों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने
वाले लोग बड़े जतन से कटहल का पेड़ लगाते हैं और इसे व्यापारियों के पास
बेचकर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करते हैं।
क्षेत्र में कटहल इस
क्षेत्र किसानों की अतिरिक्त आय का प्रमुख जरिया है। प्रतिवर्ष कटहल की
बिक्री कर किसान हजारों रुपये अतिरिक्त आय के रूप में अर्जित करते हैं। कई
किसानों के लिए खरीफ की खेती कटहल पर ही टिकी होती है। किसान गर्मी के
दिनों में कटहल की बिक्री कर उससे अर्जित होनेवाली रकम से खरीफ की खेती के
लिए खाद, बीज आदि खरीदते हैं। हालांकि कटहल के पेड़ों की संख्या में कमी
जरूर आ रही है, लेकिन किसान अब भी कटहल के पौधे लगाते हैं। कटहल से किसानों
को होनेवाले फायदे पर गौर करें, तो मार्च माह से ही किसानों को कटहल से
लाभ मिलना शुरू हो जाता है। मार्च माह तक पेड़ों में फसल आना शुरू हो जाता
है।
इस वक्त नई सब्जी के रूप में मंडी में कटहल की काफी मांग रहती
है। छोटे साइज के कटहल को किसान इस अवधि में बाजार में अधिक कीमत पर बेचते
हैं। अप्रैल और मई महीने में कटहल अपने पूर्ण आकार में आ जाता है। इस वक्त
पेड़ों पर लदे एक कटहल का वजन पांच से 10 किलोग्राम तक होता है। कोई कोई
कटहल तो 15-20 किलो तक के होते हैं। इसकी बिक्री किसान साप्ताहिक हाटों और
डेली मार्केट में करते हैं। कटहल का सबसे अधिक उपयोग सब्जी के रूप में होता
है। तोरपा प्रखंड के दियांकेल गांव की कटहल उत्पादक किसान अनिता कहती हैं
कि पहले इस क्षेत्र में काफी गरीबी थी। लोगों को मुश्किल से दो वक्त का
भोजन मिल पाता था। ऐसे में कटहल ही गरीबों का निवाला होता था। आज भी सुदूर
पर्वतीय और जंगली इलाके में गरीब कटहल खाकर जीवन यापन करते हैं। उन्होंने
कहा कि कटहल को गरीबों का पनीर कहा जाता है। सब्जी के अलावा कटहल की अन्य
कई उपयोगिताएं हैं। कुछ गृहिणियां कटहल का अचार बनाकर इसे घरों में
संग्रहित करके रखती हैं। इसके अलावा पके हुए कटहल को भी लोग काफी चाव से
खाते हैं।
कटहल प्रोसेसिंग यूनिट नहीं होने का फायदा उठाते हैं बिचौलिये
खूंटी
जिले में भले कटहल का भरपूर उत्पादन होता है, लेकिन इसके लिए कोई
प्रोसेसिंग यूनिट नहीं है। इसके कारण किसान बिचौलियों के हाथों औने-पौने
दाम में कटहल बेचने को मजबूर हैं। कटहल के उत्पादन का पूरा लाभ बिचौलिए उठा
रहे हैं। बीते कुछ सालों से कटहल पर बिचौलिए व्यवसायियों ने कब्जा कर रखा
है। कटहल के पेड़ों में फल लगते ही बिचौलिए गांव-गांव में घूमकर किसानों से
एक सीजन के लिए पेड़ के सारे कटहल खरीद लेते हैं। बिक्री के लिए बाजार जाने
के झंझट से बचने और गांव में ही बिक्री की व्यवस्था उपलब्ध होने से किसान
भी आसानी से बिचौलिए को कटहल बेच देते हैं। कटहल के पेड़ों के मूल्य का
निर्धारण उस पर आई फसलों को देखकर किया जाता है।
बिचौलिए
व्यवसायियों द्वारा एक सीजन के लिए खरीदे गए कटहल के एक पेड़ की कीमत की रकम
के रूप में किसानों को मात्र एक से दो हजार रुपये दिये जाते हैं। जब पेड़ों
पर फसल अपनी पूर्ण आकृति में आ जाती है तो बिचौलिए पेड़ से फसलों को तोड़कर
उसे स्थानीय और बाहर की मंडियों में खपाते हैं। महज एक से दो से दो हजार
रुपये में किसानों से खरीदे गए कटहल को बाहर की मंडियों में बेचकर बिचौलिए
एक पेड़ की फसल से 50 से 60 हजार रुपये तक की आमदनी करते हैं। यह सिलसिला
बीते कई वर्षों से चला आ रहा है।
जिले में लगभग सभी क्षेत्रों मे
कटहल का बंपर उत्पाद होता है। जानकार बताते हैं कि खूंटी जिले में कटहल का
व्यापार दो से तीन करोड़ का है। कटहल का उत्पादन तोरपा, कर्रा, रनिया,
मुरहू, अड़की आदि ग्रामीण इलाकों में काफी मात्रा में होता है। रनिया के
किसान नारायण साहू कहते हैं कि सरकार को कटहल के उत्पादन को बढ़ावा और
किसानों के लिए बाजार और प्रेसेसिंग यूनिट की व्यवस्था करनी चाहिए।